दोस्तों, सुख का सफलता से
घना रिश्ता है और जो लोग सफलता से चूक जाते है वो दुख की ओर रुख कर लेते है, लेकिन मेरा मानना है कि असफलता और निराशा में
सफलता व आशा को देखें और महसूस करें। दोस्तों मेरा तो यह संदेश है कि अवसाद
(सफलता का न मिलना) की अंधेरी रात में आशा (सफलता का मिलना) का दिया जलाए रखना
चाहिए, क्योंकि रात के अंधेरे के बाद सुबह का प्रकाश आना निश्चित है. असफलता के
अंधकार में, जो व्यक्ति सफलता को महसूस कर पाता है, वहीं सफलता के रास्ते पर आगे
बढ़ता है, और साथ ही उसके सारे दुख भी दूर हो जाते है। दोस्तों हमें बस इतना करना
है कि खुद पर विश्वास बनाये रखना है। जब कोई घुड़सवार घोड़े से गिर जाता है, तब
वह तुरन्त अपने कपड़ो को झटकार कर और अपने चोटिल शरीर को सहलाकर फिर से घोड़े पर
बैठ जाता है, क्योंकि उसको विश्वास रहता है कि चार-पांच बार गिरने के बाद ठीक
तरह से घुड़सवारी करना आ जाएगा, जो चढ़ेगा नहीं, वह गिरेगा क्यों ? जो गिरकर बैठ
जाएगा, वह चढ़ना कैसे सीख पाएगा? दोष गिरने में नहीं, गिरकर न उठने में है. गिरते हैं सहसवार ही मैदाने जंग में, वह क्या
गिरे, जो घुटनों के बल चलें? घुड़सवार की मानसिकता से क्या हम कोई ज्ञान प्राप्त
कर सकते है? यही कि गिरने का अर्थ बैठ जाना नहीं है, बल्कि अधिक उत्साह के साथ
उठकर आगे बढ़ना है. तब जिसको हम असफलता कहते है, वह क्या है? हमारे विचार से
केवल सफलता की प्रेरणा है. असफलता का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, सफलता
के अभाव का नाम ही असफलता है. एक प्रसिद्ध विचारक निबन्धकार का यह कथन कितना सच
प्रतीत होता है कि सफलता निराशा का सूत्र कभी नहीं है, अपितु वह तो नई प्रेरणा है.
असफलता को सफलता की प्रेरणा और निराशा को आशा की जननी मानने वाले व्यक्ति ही
सफल होते है. एवरेस्ट पर विजय का अभियान सन् 1925 के आसपास आरम्भ हुआ था और
सन् 1952 में उसको सफलता प्राप्त हुई. जितनी बार अभियान असफल हुआ, उतनी ही बार
सफलता की प्रेरणा मजबूत होती गई. अभियान पर जाने वाले शूरवीरों ने क्षणिक निराशा
में आशा की झॉंकी देखी और नई उमंग लेकर सफलता की ओर बढ़ गए. दोस्तों अगर 1925 में
मिली असफलता से अगर वो लोग घबरा जाते तो आज तक शायद ही कोई व्यक्ति एवरेस्ट तक
पहुच पाता।
“रात लम्बी है मगर तारों भरी है, हर दिशा का दीप पलकों ने जलाया ।
सांस छोटी है, मगर आशा बड़ी है, जिन्दगी ने मौत पर पहरा बैठाया।“
इसी प्रकार भारत के स्वतन्त्रता संग्राम को ही
उदाहरणस्वरूप ले लीजिए. इसकी शुरूआत सन् 1857 में हुई थी और उसका अंत सन् 1947 में
हुआ, जबकि भारत को स्वतन्त्रता की प्राप्ति हो गयी. इस 90 वर्ष के अन्तराल में
शासक वर्ग का दमन चक्र अनेक बार चला, अनेक व्यक्ति लाठियों और गोलियों के शिकार
हुए, अनेक बार आन्दोलन तात्कालिक रूप से असफल हुआ. अनेक बार भारतीय जनमानस पर निराशा
के बाद गहराए, परन्तु असफलता में अन्तर्निहित सफलता बराबर तड़पती रही और अपने
साधकों को बार-बार प्रेरणा प्रदान करती रही कि वे निराशा में छिपी हुई आशा को
देखने का प्रयास करें, असफलता में सफलता और निराशा में आशा की अनुभूति करने के
जीवन-दर्शन द्वारा प्रेरित होकर हमारे स्वतन्त्रता सेनानी हर बार उठ खड़े होकर
शत्रु को ललकारते हुए देखे जाते थे – देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है तथा
नहीं रखनी सरकार जालिम नहीं रखनी. सन् 1942 के अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन के मध्य
जब दमन के नाम पर ब्रिटिश सरकार का बहशीपन चरम सीमा पर था, तब हमारे नेताओं ने
आवाज लगाई थी – Greater the suppression, nearer the goal
अर्थात दमनचक्र जितना ही
प्रबल होगा, हमारा लक्ष्य उतना ही निकट हो जाएगा. यदि जीवन में आशा का अस्तित्व
मिट जाएगा, तो जीवन का अस्तित्व भी समाप्त
हो जाएगा. आशा का दिया जलाए रखने वाले व्यक्ति ही अपनी नैया को बिना रूके पार ले
जाते हैं. दोस्तों इन सभी स्थितियों पर नजर डाले और विश्लेषण करें तो हम
पायेंगे कि हमारे दुख और परेशानियां और मार्ग की बाधायें इनकें आगे कुछ भी नहीं है
हमें मिल रही बाधायें कुछ भी नहीं है वह सिर्फ छोटा सा पड़ाव बस है और कुछ भी नही।
अब हमें इन बाधाओं से सीख लेकर इनसे आगे बढ़ना है और सफलता के माध्यम से दुख को
दूर करना है और दुख से सुख की ओर व असफलता से सफलता की ओर बढ़ना है।
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Nice blog bro
ReplyDeleteWah!
ReplyDeleteGood yar
ReplyDeleteBahut achcha h
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